Sunday 26 April 2020

2020 में इधर उधर से अनंत जी की संगृहीत की हुई हजारों कविताओं में से कुछ कविताएं


1 -बारिश में 

बाहर बारिश में
सारी दुनिया भागती है
पेड़ , पौधे , जंगल , बियावान
महानगर की सड़कें, गावं के खेत
भागता साइकिल सवार
न भाग पाता बूढा असमर्थ
सब भीगतें हैं |
लोग अपना कमरे में सुरक्षित
अपनी न चाही स्त्री की याद में गर्क़ |
कहाँ है ? सुख का अमृत-कलश
जिसके लिए हम लाडे कभी देवता से
कभी दानव से
कभी अपने भीतर के मानव से
ढले और छले गये
राहु से कटे
और केतु से बचे ?


2 -अब क्या होगा 

अब क्या होगा
 इस भूले-भूले शहर का
कितने बनेंगे पागलखाने
कितने लोग
गायेंगे गीत
और कितने लोग जाएँगे
लोक सभा |
मै तो सिर्फ एक
आदमी हूँ
प्रजा तंत्र की प्रजा
नाक जो बची है
वह
औरत के नाते
कितना हस्यास्पद होगा
लोगों के बताना
कि वे सब लोग
सिर्फ नाक बचा सकें हैं
बाकी जो कविताएँ थी
खली दिनों में लिखी गई
सब की सब चरित्र सी गिर गई
मै बच गया
इस देश के आखबार को
पढने के लिए
कल की जिंदगी को
औरों के साथ झेलने के लिए |

3. एक शाम ऐसी भी

अंधेरे भुन रहे है हम
उजाले दूर होते और जाते

कहीं से रौशनी नहीं आती
किवाड़ें खोलते है रोज गो हम

बड़ा बेदर्द लगता है जमाना
हमारा दोष भी रहता नहीं कम

किसी के साथ खातिर क्या करें हम
न मेरा था न उसके हो सके हम

अभी कुछ और बाकी रह गया है
जिए जाते इसी गफलत में तुम हम

बहुत आसन होता यदि सुलगना
लकड़ियों से बने होते सदा हम

यह पर्वत पार करना है इसी से
न पाँव में हमारे हो भले दम

न कोई राह नहीं साथी है कोई 
न मंजिल का पता मिलता है कोई 

4 . ख़ामोशी

चुप है हर चीज़
मच्छर कातते हैं
ढल रही है शाम
शहर से दूर हूँ मै
घिर रही है याद जैसे रात
जिंदगी की कोख में
पल रही बच्चे सी याद.

5 .मेरे रहते वह नहीं कटेगा

पहले सोचा था
इस पिछवाड़े के पांच वर्ष पुराने
बेटी मनीषा के लगाए
अमरुद के पेड़ को
कटवा दूंगा
दागी फल देता है
और बन्दर शहर के फलदार पेड़ों के अभाव में
यही आते है
फल खाते हैं यहाँ तक तो ठीक
कपि स्वाभाव डालियाँ तोड़ जाते हैं
यह भी ठीक
पत्नी को बेहद डरा जाते है
पर आज सबेरे फिर
एक तोते को अमरुद कुतरते देखा
पेड़ की डाली की ओर
चुप चाप देखते रहा
लगा हरे हरे पात
और हरे पीले फलों वाले
इस एक मात्र मोहल्ले के
गरीब परवर को काटना ठीक नहीं
गिलहरियों गरीब घरों के बच्चों
बंदरो तोतों
और जाने कितने शहरी
आक्रमण से परेशान
पक्षियों के एक मात्र
माधव-निकुंज  को काटने का पाप
मैं नहीं लूँगा |
मैंने जब पेड़ों से अगली
मुलाकार की
पेड़ खुश होकर पत्तों की छाया कर रहा था
और गिलहरियाँ ऐसे प्रसन्न थी
जैसे मुझे डालियों पर भागने की
ट्रेंनिंग दे सकती हैं |
मैं खुश हूँ की पेड़ है कि
मेरे रहते वह नहीं कटेगा |

6. आ गया समाजवाद 

आ गया समाजवाद 
कुरतावाद  
खादी वाद 
बड़े-बड़े लोगों ने बनाए मकान 
बड़े-बड़े शहरों में बड़े-बड़े जलसे हुए 
भीड़ भरे भाषण हुए 
मुझसे कल पूंछ रहा था 
झिनकू चमार 
'क्यों बाबू कल तो 
मेरे गावं भी आएगी 
नेता जी की कार 
सभापति जी पिटवा रहे है 
सड़क | 
कल ही से हम लोग 
साफ़ कर रहे पश्चिम टोले का नरक| '
मैंने मुस्कुरा दिया 
' हाँ , झिनकू 
अब तुम भी जलाओगे 
सवालाख पर दिए | '
११/०६/१९७२ 

7. प्यार हमारा 

प्यार हमारा नहीं फूल है 
जो चाहे सूंघे या छेंके 
प्यार हमारा निशा नहीं है 
जो चाहे  लिपट सो जए 
प्यार नहीं है शब्द 
चीख या उमड़ी पीड़ा 
प्यार नहीं है गीत हमारा 
जो चाहे मन ही मन गाए 
प्यार हमारा क्या है 
कहना बड़ा कठिन है 
किन्तु प्यार 
इस एक शब्द का अर्थ 
समाया सांस-सांस में 
सांस कि जिसमे जीने मरने की 
परिभाषा छिपी हुई है | 

8. पर्वत 

पर्वत!
तुम इतना मौन क्यों हो!
चकित हो  क्या 
देखकर नाभकी असीमता :
धारकी व्यापकता!
मैंने पूछा,
पर्वत मौन रह गया | 
मैंने लोगों को भाषण करते सुना 
गुना कुछ देर बैठ,
फिर मुझे दिख ही गयी 
सभीकी असीमता नभ-सी 
सबकी ही व्यापकता 
धरती-सी 
मैं भी मौन रह गया तत्क्षण 
पर्वत हँसा भाँप कर मुझको 
मैंने झुक कर कहा 
शैल 
अभिवादन!
सच है केवल मौन | 
बोलना 
पागलपन ?

9. मौसम की ख़ुशी में 

क्यों न हम अपने दुःख को 
इस मौसम की ख़ुशी में 
पिघल जाने दें ,
बारिश की बूंदों में 
नाचती , लहराती 
हरी-हरी पत्तियों की ख़ुशी में 
हम भी खुश हो लें | 
स्वार्थी होंगे लोग 
जो आज भी अपनी गांठ 
नहीं खोल सके होंगे :
बदल जब बुद्ध की करुणा की तरह 
विश्व पर बरस रहे हैं 
खिड़कियां बंद किये होंगे 
ऐस अहमक 
हथेली भी नहीं निकाल पाये होंगे बाहर 
भीगने को कैसे कहे | 


10. एक कविता 

शब्द और अर्थ 
तुम एक अर्थ भरे सागर हो 
शब्दों की सीपियाँ 
शब्दों की मोतियाँ 
शब्दों के शंख 
और शब्दों के रात्र के रत्न 
शब्दों के जाने ही कितने 
ये रूप और नाम 
किन्तु सागर तो सागर है 
उसको वह लहराना 
भीतर से भाहर को 
बहार से भीतर को 
छूना 
आना 
जाना 
कहो बंधु , कितना संकेत बना सकते हो  

11. आज वसंत पंचमी है 

एक  तोरण ही सही 
आम के पत्तों 
रस्सी का 
तान दो 
आज वसंत पंचमी है | 
एक पीली धोती मैं 
पहनता हूँ 
एक पीली साडी तुम पहन लो 
कमरे में पीले फूल का 
एक गुलदस्ता रख दो 
आज वसंत पंचमी है | 
मर गए लोग 
उन्हें याद कर भी 
बाँध गए लोग 
उन्हें याद कर भी
जो बचे लोग हैं 
उनकी ख़ुशी के लिए एक फाग गा लो 
आज वसंत पंचमी है | 
थोड़ी ढोल कस लो 
थोड़ा मजीरा बजा लो 
थोड़ा गुलाल छिड़का दो 
शिवलिंग पर 
आज वसंत पंचमी है | 
शहर उदास है 
गँवई-गाँव 
खस्ता हल 
लोगबाग बच्चा जवान 
प्रायः सभी निढाल है 
भूढ़ों की बात सुन लो 
वे जैसे कहें 
वैसा ही मान लो 
आज वसंत पंचमी है | 
(साहित्य अमृत पत्रिका  में १९९६ में प्रकाशित अनंत जी की कविता )   

12. काल की असलियत

 वक्त धीरे-धीरे अंधेरा होता है
धीरे-धीरे वक्त बीतता है
धीरे-धीरे सूरज उग कर भी 
अंधेरे की ओर यात्रा करता है।
हम जिसे कहते है सूर्य
वह अंधेरे की काट में 
लगा हुआ सिरफिरा शक्तिमान है
अरबों वर्षों से सिर्फ लड़ रहा है 
सुबह से शाम तक 
उसे छुट्टी नहीं मिल रही है
और अंधेरे की फौज का 
बाल बांका भी नहीं हो रहा है।
इसी अंधेरे को तबाह करने के लिए 
हमने जलाए थे प्यार के दीपक 
हम खुद भी जल रहे थे इसी में 
ज्योति की शिखा, ज्योति के फूल
और इस दीपावली को 
हम जिंदगी कहते थे 
की वह वक्त की नज़र में खत्म हो गई 
वक्त को क्या पता 
की वक्त को जब दुनिया में भी
कोई नहीं जानता था 
तब भी वो दिया जल रहा था 
हाँ बाती नहीं थी 
उसे किसी की स्नेहिल उंगलियों ने छुआ नहीं था
पर वह जल रहा था 
निरंतर और निरंतर ।

13.(कविता)

मिलने से सुख न मिला
न मिलने में भूल
दोनों में ही खिल रहा
प्रिये, प्रेम का फूल।
                         तुम मतवाली लता सी
                         मैं हूँ पवन अमंद
                         आऊं यदि उद्यान में
                         टूटेगी प्रिय बेल।
हंसती हो तो हंस की
शोभा बनती धूल
आँख मिलती हो अगर
टूटे संयम पूल।

14.बह्मदोष

 ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल
अश्वत्थामा से लेकर अबतक
जिनके पास यह रहा
वे इसका उपयोग
संहार के लिए ही करते रहे
जिनके पास तीर,धनुष
या लाठी/डंडे थे,
चाकू,कटार, तलवार
मुद्गर,फरसा
वे भी करते रहे
पर इतना व्यापक
नहीं की दुनिया
या दुनिया के बीज
नष्ट हो जाए,
ब्रह्मास्त्र का ब्रह्म
दुनिया के लिए
सिर्फ दोष ही है क्या
शायद इसी लिए
लोक करते हैं उपाय
ब्रह्मदोष की शांति के लिए।

15.रात

रात एक बड़ी सी चिड़िया है
मेरे ऊपर फैला देती है
अपने डैने
गोया मैं
उसका अंडा हूँ
थकान और नींद की गर्मी से
वह मुझे सेती है,
सुबह सुर्र की तरह
पैदा करेगी।
रात मेरी माँ है
और मैं हूँ
उसका
इकलौता बेटा।

16.तुम्हारी हँसी (एक)

हँसी का पुल
हिए की चांदनी है
रोक लेती कभी
कभी आस पास
चंदन के वनों से
जोड़ देती है।
तुम्हारे धुले उजले पाँव
छाती में आड़े दो
मानसर के कमल
पार्वती स्नान करतीं
शिव ठहर कर देखते हैं ।

दो:-

फूलों से बनी अपनी
देह लतिका
झुकाओ न इतना कि
पंखरी झरे
गंध उड़े।

तीन:-

तुम्हारे पाँवो से अच्छी नहीं
है कोई कविता
इन्हें मेरी गोंद में गाने दो
अपने में कपोतप्राय
मेरे सीने के झरोखे पर
बैठ जाने दो
मुझे नहीं
मेरी इस वासना को
अपने केशों में
फीते सा बंध जाने दो।

17.सौदागर

उन्होंने अपना सामान अपने से
झोले से निकाला
और लोगों को दिखाना शुरू किया ,
यह रहा साबुन
इससे नहाए
ये रहा भोजन
इसे आप खयें
यह रहा घर
ऐसा बनाएं
यह रही मोटर
इसमें आएं जाएं
जनता ने पूछा
कब हम यह सब पाएं
उन्होंने उत्तर दिया
बस आप लोग
कीमत चुकाएं।

18.तुम्हे देखा

पृथ्वी पर जलाशय
जलाशय में जल
जल में कमल देखा
दल में विमल देखा
रंग देखा
राग देखा
रश्मि देखा
तुम्हें देखा।

19.तुम्हे नहीं देखा

नहीं देखा दिन
नहीं देखा रात
नहीं देखा सुख
नहीं देखा राज्य
नहीं देखा
कुछ भी
पर अंधकार देखा
तुम्हें नहीं देखा।

20.मिलन

मिलने के बाद भी
बची रह जाती है
मिलने की बैचैनी
तुम मेरे भीतर बजती हो
वीणा सी
मेरे अंगुलियों के पोरो में
अदृश्य सितार के तारों का
स्पर्श,संगीत
तुम्हारी स्मृति
धरती पर फूलों की घाटी के
फूलों की खुशबू
और सपनों में
अगाणित नक्षत्रों की तरह
तुम हो , तो हूँ
तुम्हारे नीले गहरे सागर में
जैसे वैश्वानर जीवित रहता है
जिसे कोई नहीं देखता है
सतह पर।

21.सन डे

सन दे नाखून काटने का दिन
देर से उठने का पड़े पड़े सोचने का
दीवार पर चढ़ती छिपकिली
और घर की दीवारों के बदरंग होने की
नियति को निहारने का दिन है,
कपडे सुखाने के
बाल सुखाने का
देर तक शैम्पू करने
और शेव बनाने का दिन है
नई के वहां जाने
बाल कटवाने देर से खाने
और लेट जाने का दिन है,
शहर के आदमी का
थोड़ा देहात में जाने का दिन है
भैस की तरह
विचारों को पगुरी करने का दिन है
मित्रों की व्यस्तता के बीच
अचानक न टपक जाने का दिन है ।
एक सन डे को
हज़ार अरमान पूरे करने का सपना
लेकर
शाम कर देने का दिन है
पत्नी को चिढ़ाने का
बच्चों को छुआने का
बाबा से बतियाने का दिन है,
सन डे
नाखून काटने का दिन है।

22.एक माँ 

बूढ़ी औरत
हाथ भर चुडिया
पावँ में पायल बिछिया जमाएं
मेहदी रचाये
बाल रंगे
पतली हो गई चोटी को पीठ पर टिकाएं
किस तरह करवट बदलती है बैचैन
अपने दर्द की शिकायत करती
दवाई के बारे में
पूछती
अपने अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में है
कि अपने उसके नाती पोते
उसके अनुसार जिये और वो अपनी
इक्छा मौत मारे
भगवान का बार बार
उल्लेख करती वह स्त्री
क्या जिंदगी की
सिफारिश कर रही है
या अपनी नियति को
टुकड़े टुकड़े में
चमकीला बनाने की कोशिश में है
भगवान उसका सहारा हो न हो
पर वो भगवान को सहारा दिए हुए है
उसकी झुर्रियों में देश अपनी नदियों की
लकीरों के साथ जिंदा है
और अज्ञात दूरी पर मौत
उसके घर में
घुसने का
जुगत निकाल रही है ।


23.मुकम्मल:-

चलो अच्छा हुआ 
मैं राजा के दरबार में नहीं गया 
मेरे साथी गए 
वे जब कभी हाट बाजार में 
मिलते हैं
वक्त-बेवक्त 
कई के नाम बदले हुए थे 
कई के चेहरों पर
लगी थी कालिख
और कई ने अपनी मूँछे मुड़वा ली थीं
और तो और 
वह दयाशंकर 
जो बात-बात में हँसता था 
वह हँसते-हँसते या तो चुप हो जाता है
या हँसता ही नहीं 
चलो अच्छा हुआ 
उनके गले में पड़ी हुई तख्तियों को 
देख कर मैन सोचा वैसे भी गले में मेरे कुछ ठहरता नहीं
या तो दिल में चला जाता है 
या जबान पर चला आता है 
और वे बता रहे थे कि 
ऐसे आदमी भी 
उनके साथ थे 
जिनकी राजा ने कर दी थी फाँसी
और जो बचे थे 
उनके पास न था शब्द 
न अपनी आँखे 
वे या तो दाएं चलते थे या तो बाएं
सामने कभी नहीं 
चलो अच्छा हुआ 
मेरे पास उनकी तरह जूते न थे
न उस तरह की पगड़ी 
पर मेरे पास चेहरा तो मेरा था 
जहाँ का तहाँ ठीक गर्दन के ऊपर
मैं अपनी आंख से देख सकता था
और अपने होठों से हँस सकता था 
अपनी जगह पर था मुकमल जैसे
पहले था।

24.भोजपुरी लोग

रात दिन चोरी और चालाकी
क्या चुकाया क्या बाकी 
सिर्फ एक समाधान 
भ्रमण की मारी टाकी।

25.भोजपुरी भुगोल

जगह जगह घु मूत
कूड़ा करकट 
अदरांगे लोग 
ज्यादा तर जैसे मारकाट ।
अपनी अपनी जगह जमीन पर 
घोरु से हिरे, पगुरी करते बतियाते
एक दूसरे को लतियाते 
थोड़े से लोग कुछ इतने अघाये 
की बाकी लोगों का हिस्सा हथिये 
पर धन पर दारा के फेर में 
अपना अधिकांश समय गवाएं
मांग रहे है भाषा पर मुहर
लग जाए सरकारी 
नहीं खाते तरस यहाँ की धरती पर
बची रह गई बेचारी ।

26.बच्चा और आदमी

बच्चा जहाँ भी जाता है
वहीं से ऊब जाता है 
क्योंकि उसका कोई स्वार्थ 
नहीं होता,
आदमी ऊबता है जरूर
पर स्वार्थ बस बैठा रहता 
डूबता रहता है उसी 
कुएँ में 
जहां से बराबर 
वह निकलना चाहता है।

27.आग


आग हर किसी के सीने में लगी है
हर कोई खटकिरवा की तरह नाच रहा है
दुनिया के बड़े बड़े नामी गरामी हकीम
इस आग को भुझाना चाहते हैं
और खुद ही इस आग के शिकार हो जाते हैं
पानी, पानी और पानी
आग होती तो दमकल से भुझा दी जाती
क्या है वह आग
जंगल की आग
समुद्र की आग
पेट की आग
एक नौजवान लाइब्रेरी में
पुस्तकों से पूछने जाता है
और सारी लाइब्रेरी में
आग लगने की कोशिश में
पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है

28.सहना

वह जो कुछ कहता है
मान लो बन्धु
समय बहुत खराब है
चुप चाप सहते चलो।
सहते चलो
सहने से भी एक आवाज़
मिलती है
जो कभी-कभी
घनीभूत होकर
बड़े काम के लिए
बाहर निकलती है।

(1969 में लिखी गई कविता)

29.श्रेष्ठ कविता


हम चाहे तो लिख सकते हैं
अपने समय की व्यर्थता के गीत
पर यह सच सबका नहीं होगा
कोई तो होगा
जिसका समय व्यर्थ न हो
हम चाहे तो लिखें शोक और
अत्यंत दारुण बिछोह का गीत
पर वह कैसे सच होगा
कोई तो मिल रहा होगा चरम क्षणों में
स्वयंको
सार्थक करता ,
हम चाहे तो लिखे अपने युग के
अधः पतन का
अत्यंत शक्तिशाली काव्य
पर यह पाठ सबका नहीं होगा
कोई तो उलीच ही रहा होगा
आपमे देह और आत्मा का सर्वोत्तम
दुनिया के हिट के लिए।
इसलिए नहीं लिखता मैं
कोई युग का सच
क्योंकि कोई सच युग का सच नहीं होता।
अब लिखने के लिए
वह लिखा जाना चाहिए
जो लिखा न गया हो
वह एक शब्द होगा
आविष्कार काव्य
और यदि वह कही भी दिखे तो
उसे कहा जाना चाहिए काव्य।
आत्मा की तलहटी में
कुछ बचा होगा
तो वह
हाँ वही
शब्द का सही ऊर्जा होगा
पहले जाया जाए
इस चक्करदार रास्ते के घुमाओ के
बरक्स
उतरे बहुत नीचे
जहां पृथ्वी की अनादि जड़ो में
पड़ी हो
श्रेष्ठ कविता।

30. परिवेश

अद्भुत चूतियों के बीच 
हे हरि!
कबतक मुझे जीना है
रहना है इसी तरह 
खींसे निपोरना है
पूंछ हिलाना है
रोटी दाल खाना है 
वेतन उठाना है
गृहस्ती चलना है 
यही यदि भद्र लोग 
इससे तो अच्छा है 
भाड़ में जाना है 
पीठ पर बोरा 
या आदमी उठाना है 
अद्भुत यह परिवेश 
जैसे नरक कोई
क्या मुझको इसी तरह 
जीवन बिताना है ? 

31.प्रतिक्रिया विहीन 

कभी कभी हम इतने निढाल
हो जाते हैं
की कुत्ते मुह चाटने लगें
तो भी गुस्सा नहीं आता 
न तो प्रतिकार करने की इच्छा होती है 
न वार करने की 
हम पड़े रह जाते है 
और चिड़िया ऐन चेहरे पर 
बीट कर देती है 
कोई भी कह देता है 
अकर्मण्य आलसी 
हम कुछ नहीं बोलते 
आँख मूंद लेते हैं 
देश दशा और दिशा 
के विषय मे हमारा कोई 
नजरिया नहीं होता 
हवा छूती है निकल जाती है 
सांसो की आवाज़ सुनते हैं 
दिल की उटपटांग धड़कनो से
कान लगाए रहते हैं 
असल मे कई आध्यात्मिक लोग 
इसे ध्यान कहते हैं 
पर हम हारे हुए लोग हैं 
जो इस कथन का भी प्रतिकार नहीं कर सकते ।

32. नेत्र हीन छात्रों को देख


एक छड़ी खटखटाता 
दूसरा दूसरी छड़ी की किफ़ायत को 
दूसरे की बाह पकड़ कर दर्शाता 
ऐसे कई जोड़े 
गेट पर कर रहे हैं 
नेत्र हीन विद्यार्थी 
विश्विद्यालय में पढ़ने वाले
काफी प्रसन्न हैं वे
जहाँ तक दिखते हैं
मैं अचंभित 
सोचता 
बिना आंखों के 
जीवन का कौन सा स्वाद 
ये जी रहे हैं 
जिसे पा कर प्रफुल्लित हैं
शायद स्पर्श का स्वाद
भोजन का स्वाद
चलने का स्वाद
वगैरह वगैरह
जब कि वे नहीं देख पाते 
स्पृष्ट 
भोज्य धरती 
जिसपर वे हैं 
जीवन का स्वाद 
क्या इन्द्रियों से परे है ।
परमात्मा की तरह 

33.प्रेम

किसी को देख कर 
खुश होना 
प्रेम हो शायद 
एक बार मिलने के बाद 
बार-बार मिलना
प्रेम हो शायद 
न मिलने पर तड़पना
प्रेम हो शायद
प्रेम बच जाता है 
हर प्रेम के बाद 
बचे रहना अपना और 
दूसरों का 
प्रेम है शायद।

34.दो मुक्तक


(एक)
उम्मीद का दिया है इसे दिल मे जगह दो
गो रात अंधेरी है इसी से सुबह करो
तुमने हज़ार बार सही फैसला किया 
अब इश्क़ करेंगे नहीं फिर से मगर करो ।

(दो)
शामों में अगर दिल में तेरे आरियां चलें
ये राजे मुहब्बत समझ कर उफ नहीं करो
इंसान ही वो क्या जो मुहब्बत नहीं करे
ये जिंदगी की आग है इससे नहीं डरों।

35.मेघ अनुभव श्वेताश्वेतर : बादल अपना काम करेंगे


हर वर्ष जब भी बादल 
नई बरसात की सूचना देते हैं
मौसम आर्द्र होता है 
तब हम भी वनस्पतियों की तरह 
हरे हो जाते हैं ।
तुम्हे याद करते हैं 
ताज़े फूलों की खुश्बू की तरह
हमारी शिकायतें 
पानी की बूंदों में बह जाती हैं
नया विश्वास 
नए दुर्बा की तरह उग आता है 
क्या तुम्हारे आंगन में नहीं 
उनौते बादल 
क्या तुम्हारे कमरे में
तुम्हे घेर कर पानी-पानी नहीं करती बूँदे
क्या तुम्हारी शिकायतें ठूठ की तरह वहीं की वहीं रह जाती हैं
मन के प्रश्न 
मन की चंचला यादों की तरह 
तुम्हे अपनी भीतर अश्क़ करते हैं
क्या कभी उस समय नहीं मिलोगी
जब मैं तुम्हे बुलाता हूँ 
उन्हीं प्रकार के क्षणों में 
हम तुम तो कभी नहीं जुड़ेंगे जीवन भर
पर हर बरसात के समाधिस्ट क्षणों में
बादल हमें जोड़ेंगे पर भर, प्रतिपल, प्रहर भर।

36.एक समाचार


बूढ़ा जाने की हर कोशिश कर राह था 
यद्यपि उसके प्राण तक कांप रहे थे
और वह भीख के पाये पैसे
बड़े जतन से संभाल रहा था।
उसने आखिरी कोशिश की
और सड़क पार गया।
उस पार ट्रक रुकी थी
पर अब भी घुरघुरा रही थी
बूढ़ा वहीं एक गिरी हुई लड़की
उठाने के लिए झुका था 
और बस सबकुछ समाप्त हो गया।
उसकी कथनी अलग
उसका कटोरा अलग 
उसके पैसे संभाले वाला कोई नहीं था 
बूढ़ा वहाँ आदमी जमा कर चुका था 
पुलिस भी अब आ गयी थी
और अब बूढ़ा सरकारी वैन पर 
अपनी महायात्रा पर
जा रहा था।
बूढ़े का जो होना था
वह हर पत्रकार जानता था
और अगली सुबह मैंने भी
समाचार-पत्र में पढ़ा
एक बूढ़ा भिखारी ट्रक के
धक्के में मरा।

37.पांच कविताएं


1 अविश्वास

उसी रास्ते पर 
सब के सब
मणि की खोज में गए
वापस नहीं आये
मैंने मना किया था।

2 प्रेम

काँपते हाथ में 
कटोरे का जलता हुआ दूध
मन पर पौंट जाता है 
गिर कर 
बाद जिसके 
सिर्फ पछतावा रह जाता है ।

3 निरीहता

लहू का घूंट पी कर भी
हाथ उठे नहीं 
जुड़े रहे 
देर तक हवा 
सारे नगर में 
यही चर्चा करती रही।

4 विश्वाश

एक शब्द 
लिख दे रहा हूँ
हिलती हवा में 
पत्तियों की हथेली पर 
पतझर के मौसम में 
काम आएगा।

5 उत्साह

मैंने अकेले में
एक गीत गाया 
और उसे सुनने के लिए
सड़क पर एक हुजूम खड़ा रहा
हिला तक नहीं 
जब तक मेरे गीत का 
सिलसिला बना रहा।










                                                  







Thursday 1 June 2017

सतत यात्रा

अचानक उठ जाता हूँ
डूबते हुए गोया
निकल आया हूँ
इस कमरे से उस कमरे जाता हूँ
खोजता हूँ एक शब्द
जो मेरी अकुलाहट को भाषा दे दे
अचानक खिड़की से दिखता है खुला आसमान
आसमान के पास पहुंची पेड़ की डालियाँ और पत्तियाँ
सुनता हूँ सड़क पर चलती गाड़ियों की आवाज
फेरी वालों की पुकार
और मेरा खोया हुआ शब्द
फिर गायब हो जाता है
खोजता हूँ शब्द
और गायब होता जाता है शब्द
शायद यही मैं कर रहा हूँ
कई जन्मों से
और आप समझते हैं
कि मैं कविता लिख रहा हूँ
शताब्दियों की पाटी पर ।
(अनंत मिश्र) 

कविता

जब भी कातर होता हूँ
तो कविता लिखता हूँ
खोजता हूँ कलम
हड़बड़ी होती है सहसा न मिलने पर बेचैनी 
कि कलम कहाँ है
व्यवस्थित कभी नही रहा कि
सब कुछ समय पर मिले
पर शायद इसी अव्यवस्था ने
दी है इतनी बेचैनी कि कविता लिखता हूँ
मन का मजबूत होता तो क्यों लिखता कविता
कातर भी क्यों होता
मैं भी होता कोई हिटलर
ओबामा
या मोदी
और बम बनाने के बारे में
दुनिया को चमकदार बनाने के हौसले में
बुलंद रहता
मुस्कराता
शरीर की भाषा से सबको
प्रभावित कर के
उत्तम प्रभावशाली भाषण देता,
तो मैं एक निरा मनुष्य
कविता लिखता हूँ
मित्रों के मरने,
कुत्तों के भूख से भौकने
और पड़ोस में चूल्हा न जलने क
समाचार से आहत
भूकंप से मर गए बर्बाद हो गए मनुष्यों
और जवान किसी के बेटे के मरने की खबर
बलात्कार की खबरों
पुलिस कस्टडी में पिटते आदमी की चीख की खबर
और वगैरह-वगैरह
बातों को ले कर परेशान
मैं कविता लिखता हूँ,
कविता में शब्द हवा की तरह मुफ़्त मिलते हैं
बिना किसी बैंक में गए
कविता में दुःख और पीड़ा वैसे ही मिलती है
जैसे त्वचा से देह की सुरक्षा,
कविता माँ की गोद की तरह
बच्चे के पुलक की तरह
कविता एक गाने की तरह
कविता एक प्याली चाय की तरह
कविता थकान के बाद पसर गए
विश्राम की तरह
मुझे मिलती है
बस इतना ही रहस्य है कि
वह जब मिलती है
तो बाँटने के लिए मजबूर करती है
और उसकी यह दी गई मजबूरी
मुझे उसके प्रति बहुत प्यार देती है
क्यों कि जब भी कुछ मिलता है
तो बाँटने का आनंद
शायद प्यार है
और प्यार स्वयम एक बड़ी कविता है ।
(अनंत मिश्र)

दिनचर्या

दिनांत में सूर्य के घोड़े चले गए
टापों की आवाज धीमी हो गई
पेड़ पौधे कहीं नहीं गए
पर चुप हो गएँ 
सुबह जिन पक्षियों की आवाज आई थी
वह कहाँ गईं
पता नहीं
रात आने को है
घर में आए लोग
इधर-उधर कही बैठे लेटे
बच्चे ऊधम मचाते
अभी वक्त हो जाएगा
खाना बन जाने का
खाने का
और लोगों के सोने थोड़ा पढ़ने
या टी.वी. देखने का
या पूरी तरह सो जाने का
नींद एक दवा है
जीने के रोग की
सपने अभ्यास हैं
मरने के बाद भी बचे रहने के ।
(अनंत मिश्र)

खड़े रहो मेरे मित्रो अपनी जगह पेड़ो की तरह

उखड़ गए मन की जड़ से 
बने जीवन की त्वचा का स्पर्श
रह गए वंचित हँसी के सागर की लहर से 
अविरल
औ पुरातन देह के यथार्थ में
कोने में छिपे हरे-हरे कुछ पत्तों का बोध
अजब है ,
अजब है जंगले से बाहर देखना
और अनकना
दोपहर की धूप को
जिंदगी की शाम में ,
क्या बचा हुआ आदमी
इतना दयनीय होता है
वह मर गए लोगों की तुलना में भी
दया का पात्र हो जाए,
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे
ऐसी अनेक बातें सोच कर
पेड़ों तुम हिलना नहीं अपनी जगह से
नहीं तो आदमी की तरह
तुम भी पागल हो जाओगे ।
(अनंत मिश्र )

और शाम गहरा जाती है

और शाम गहरा जाती है
विदा समय में
विदा द्वार पर खड़ा पेड़
मानो कुछ कहता
और जैसे वह प्रश्न पूछता
फिर कब आओगे,
वह अपनी जड़ छोड़ नहीं सकता
मैं पर लौट-लौट सकता हूँ ।
पेड़ एक भाषा बुनता है
मौन अँधेरा गहरे-गहरे
ऐसे-ऐसे प्रश्न करता है
जिसके उत्तर दे पाना
अत्यंत असंभव ।
कभी कहो यदि किसी स्वजन से
लौटूंगा
तो क्या यह तय है ?
पेड़ जानता नहीं
किंतु सब इसे जानते हैं ।
(अनंत मिश्र)
दिल्ली से लौटते वक्त
25/7/15

दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ

उजले दीप जले 
किसके सुन्दर अधर कोर पर
ये मुस्कान खिले
नयनों में आई दिवाली
स्नेह भरी भाई दिवाली
दीपक थाल संभाले आँचल
पायल झूम चले
उजले दीप जले
झूम उठी आँगन की तुलसी
अंधकार की पाँखें झुलसीं
प्यारे-प्यारे गीत पिया के
रह-रह मचल चलें
उजले दीप जले
द्वार देख साजन परदेसी
आँसू उमड़ पड़े
उजले दीप जले
अनंत मिश्र
गोरखपुर
(यह अधूरी कविता सन 1967-68 में कादंबनी में छपी थी पूरी याद भी नहीं है पर आप को समर्पित करता हूँ )

कृपया थोड़ी देर बाद कॉल करें

आप जिस व्यक्ति से संपर्क करना चाहते हैं 
वे अभी व्यस्त हैं
या कवरेज क्षेत्र से बाहर हैं 
कृपया थोड़ी देर में कॉल करें ,
मोबाइल पर इस हिंदी भाषा के इबारत के
कई भाषाई अनुवाद दिन में
कई बार सुनने पड़ते हैं ,
आप अभी नहीं
कृपया प्रतीक्षा करें ,
वे प्रतीक्षा करें जिन्हें
अभी रोटी की समस्या का सामना
करना पड़ रहा है
वे भी प्रतीक्षा करें
जिनकी दवा नहीं हो पा रही है
वे भी प्रतीक्षा करें
जिन्हें ट्रेन में जगह नहीं मिल पा रही है
वे भी
जो नौकरी नहीं पाए
वे भी प्रतीक्षा करें
जिनकी खेती को प्रकृति ने नष्ट कर दिया
वे आदमी और औरतें
प्रतीक्षा करें
जब तक राष्ट्र मजबूत न हो जाये
भूख तो भीख मांग कर भी
मिटाई जा सकती है
पर राष्ट्र तो ज़रूरी है
सीमा पर तैनात करने हैं
भारी -भरकम हथियार
बख्तर-बंद गाड़ियां
देश को परमाणु बम से लैस करना है
और समुद्रों में
सावधान करनी हैं पनडुब्बियां
शिक्षा संस्थाओं कि इमारतों को
ठीक करना है
चोरो डाकुओं को पकड़ने के लिए
टास्क फाॅर्स जब तक
ठीक से नहीं गठित कर दी जाती
जब तक सभी बेईंमानो को
उनके किये की सजा
दे न दी जाये
प्यारे देश के भूखे भाइयों
अपनी भूख को शांत करने के लिए
पत्तियां चबाइए
और दवाइयों के नाम पर
देसी दवा या तो खाइये
या लेप करिए
देश , देश बनाने पर लगा है
आखिर देश चाक चौबंद नहीं रहा तो
आपको भीख भी नहीं मिलेगी
क्योंकि दानियों के लिए
क़ानून और व्यवस्था
सुशासन और सीमाओं की सुरक्षा
सबसे ज्यादा ज़रूरी है
कृपया थोड़ी देर बाद कॉल करें
प्रधानमंत्री जी महान कार्यों में व्यस्त हैं |
(अनंत मिश्र )

सत्य :

अंततः सभी चले जाएंगे
यह मुहावरा बोलने वालों को 
इतना बोध नहीं रहता कि 
कि कम जाते हैं 
ज्यादा लोग रह जाते हैं
प्रलय किताबों में पूर्ण होता है
प्रलय भूगोल में
हमेशा खंड प्रलय रहता है
और बचे हुए लोग
दुःख, संवेदना, आंसू, श्रद्धा
और स्मृति के फूल चढ़ाते
कैंडिल जलाते
दिवंगत आत्माओं के प्रति
अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते
ग़मगीन उदास होते हैं
एक मातमी धुन प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष बजती है
पर जिंदगी चलती रहती है
दूध दही की दूकान
और जिलेबी की दूकान
सिर्फ कर्फ्यू लगने पर बंद रहती है
सब्जियां बिकती हैं
बच्चे स्कूल जाते हैं
स्त्रियाँ सुंदर बने रहने का प्रयास करती हैं
बच्चे खेलते रहते हैं
कुत्ते दौड़ते-भागते रहते हैं
जमीन में पतिंगे
पेड़ पर गिलहरियाँ
चढ़ती उतरती रहती हैं
यानी की वह सब
जो वर्णित हो रहा है वह भी और
वह भी जो वर्णित नहीं हो रहा है
घटता रहता है,
हाँ मौत अनंत क्रिया का एक नया
खाता खोलती है
जिंदगी का बैंक तो लेन-देन करते
चलता ही रहता है |
(अनंत मिश्र)

Friday 5 September 2014

गांधी



जहां  से यात्रा शुरू होती है
वहीँ जा कर समाप्त होती है
किन्तु कुछ रास्ते ऐसे होते हैं
जिनका कोई जवाब नहीं होता ।
ऐसा ही था तुम्हारा रास्ता
तुम्हारे साथ का आदमी
थक नहीं , रुका नहीं ,
सिर्फ चालता रहा
'चरैवेती  चरैवेति' ।
वाकई झुकना  ही पड़ता है
गोकि आदमी झुकना  नही चाहता
किसी इंसान के सामने
और यह भी इसलिए
कि  इन्सान इन्सानमें फर्क क्या है ?
लेकिन कुछ दृष्टियाँ होती हैं
जो सीधे उतर जाती हैं
आँख की आतंरिक सीढ़ीयों से
बहुत गहरे
ह्रदय के सरोवर में
जहां  के अधखिले कमल
और ज्योति पाकर
विकस  जाते हैं ।
कुछ है ही ऐसा जादू
बापू तुम्हारी आँख
और उसपर चुपचाप
विश्राम लेते हुए ऐनक  मे
मुझे काफी लगता है
यही एक यंत्र
अंतरिक्ष की गहराइयों का रहस्य
जान लेने के लिए ।
आदमी चाँद पर पहुँच गया ।
विराट्  पुरुष की दो आँखे
सूर्य और चन्द्रमा
अभी नहीं पहुंचा है इंसान
सत्य और अहिंसा के वे नेत्र
अभी अबूझे हैं ।
बापू , तुम होते तो
कह देते
कि  गलत है तुम्हारी यात्रा
दिलों में पहुँचो ,
उसकी गहराइयों में उतरो
पुराण - पुरुष की दोनों आँखें वहां
बसती है ।
क्या तुम्हे इतना सामान्य-सा
ज्ञान नहीं
कि  जहां  इन्सान होता है
वहां उसकी आँखे होती हैं ?
जाओ , खोज लो जितना चाहो
देख लो अपनी आकांक्षा
महत्वाकांक्षा
लौटकर तो वहीँ आओगे न ।
तुम वहीँ लौटोगे
घुटनों की धोती और खेती में
क्यों कि  अनाज
कलियुग का ही अमृत नहीं
कल-युग का भी अमृत रहेगा ।

आज अखबार से - २. १०. ७ १

Thursday 17 July 2014

कृपया धीरे चलिए

मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा
सड़कों के किनारे
मटमैले बोर्ड पर
लाल-लाल अक्षरों में
बल्कि किसी मामूली
पेंटर कर्मचारी ने
मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ
लिख दिया
जहाँ-जहाँ पुल कमज़ोर थे
जहाँ-जहाँ जिंदगी की
भागती सड़कों पर
अंधा मोड़ था
त्वरित घुमाव था
घनी आबादी को चीर कर
सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी
बस्ता लिए छोटे बच्चोंका मदरसा था
वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह
मुझे लिखा गया
‘कृपया धीरे चलिए’
आप अपनी इम्पाला में
रुपहले बालोंवाली
कंचनलता के साथ सैर परनिकले हों
या ट्रक पर तरबूजों कीतरह
एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों
आसाम, पंजाब, बंगाल
भेजे जा रहे हों
मैं अक्सर दिखना चाहताहूँ आप को
‘कृपया धीरे चलिए’
मेरा नाम ही यही है साहब
मैं रोकता नहीं आपको
मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ,
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर
अविलम्ब पहुँचना चाहते हैं तो भी
प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी
आई.ए.एस. होना चाहते होंतो भी
रुपयों से गोदाम भरनाचाहते हों तो भी
अपने नेता को सबसे पहले माला
पहनाना चाहते हों तो भी
जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी
आत्महत्या की जल्दी है तो भी
लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी
हर जगह मैं लिखा रहताहूँ
‘कृपया धीरे चलिए’
मैं हूँ तो मामूली इबारत
आम आदमी की तरह पर
मैं तीन शब्दों कामहाकाव्य हूँ
मुझे आसानी से पढ़िए
कृपया धीरे चलिए |

Wednesday 9 July 2014

मकान- {संग्रह- 'एक शब्द उठाता हूँ' से }

मकान :
आदमी के ऊपर छत होनी ही चाहिए 
वह घरेलू महिला 
हमेशा मिलने पर कहती है 
उसका बंगला नया है 
उसके नौकर उसके लान की सोहबत ठीक करते हैं 
और वह अपने ड्राइंगरूम को 
हमेशा सजाती रहती है |
मैंने नीले आसमान के नीचे 
खड़े हो कर अनुभव किया 
कि छत मेरे सिर से शुरू होगी 
या मेरे सिर के कुछ ऊपर से 
जब मैं मकान बनाउँगा,
अब मैं मकान हो गया था 
और मेरी इन्द्रियाँ जँगलों की तरह 
प्रतीक्षा करने लगी थीं 
मैंने सोचा 
यह रहे मेरे नौकर-चाकर 
मेरे हाथ और पाँव 
यह रहा मेरा दरवाज़ा मेरा चेहरा 
यह रहा मेरा डायनिंग रूम
मेरा पेट 
यह रहा मेरा खुला हुआ बरामदा 
मेरी छाती 
यह रहे कैक्टस कटीले 
मेरी दाढ़ी-मूँछ
और यह रहा मेरा दिल 
मेरा ड्राइंगरूम 
मैंने पूरा मकान मिनटों में 
खड़ा कर लिया था,
और अब मैं आराम से 
सैर पर जा सकता था 
जेब में मूंगफली भरे हुए 
और चिड़ियों से मुलाकात करते हुए 

{संग्रह- 'एक शब्द उठाता हूँ' से }
     विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 

Saturday 12 April 2014

भारी हो जाता है सबकुछ

धीरे-धीरे मन भारी हो जाता है
शाम इबारत लिखती है अवसादों की
धीरे-धीरे तन भारी हो जाता है |
भारी हो जाता है समय
भारी और लगते हैं
कंधों पर ठहरे
जिम्मेदारियों के बोझ
लोगों की प्रतिकूल बहुत छोटी-छोटी बातें भी
भारी लगाने लगती हैं,
समय आदमी को घर में
बंद कर
बाहर से ताला लगा देता है |
भीतर आदमी धम्म से बैठता है
या अनमना लेट जाता है,
अब जाने कब ताला खोले समय
चाभी उसी के पास है,
उसकी प्रतीक्षा
भारी लगने लगती है |
कहाँ तक किया जाए भारी पन का बयान

हर शब्द बहुत भारी लगने लगता है |